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Saturday, March 16, 2013

अज़ीज़ जौनपुरी : चेहरे पे कालिख मला कीजिए

    चेहरे पे  कालिख मला कीजिए


    तोड़   सारी  हदों  को  है  तुमने  दिया
   अपने चेहरे  पे  कालिख मला कीजिए 

    हया  लुट  रही  है उजालों  में  दिन  के 
    चेहरा अपना  अँधेरों  में  धुला कीजिए 

    होठों पे है तेरे विषैले  भुजंगों का पहरा 
   अपने  होठों  से  सबको  डसा  कीजिए 

    बेशर्मियाँ  भी  अब तो घबराने लगीं हैं 
    शर्म के नाम पर सबको छला कीजिए

    जिस्म   की  भूख तो  है जाँ से भी  बड़ी
    जिस्म    की आग ले अब जला कीजिए      
 
   "अज़ीज़"  तुमको  है जिया किस तरह
    जिस्म  की आग में जल  मरा कीजिए
  
                               अजीज़ जौनपुरी 

7 comments:

  1. बहुत ही भावपूर्ण ग़ज़ल है अजीज भाई,आभार.

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  2. बेशर्मियाँ भी अब तो घबराने लगीं हैं
    शर्म के नाम पर सबको छला कीजिए.

    उम्दा शेर, जानदार गज़ल. बेहतरीन लेखन.

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  4. बेहतरीन गज़लतोड़ सारी हदों को है तुमने दिया
    अपने चेहरे पे कालिख मला कीजिए

    हया लुट रही है उजालों में दिन के
    चेहरा अपना अँधेरों में धुला कीजिए

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  5. क्या बात है ?बहुत खूब कही है जो भी कही है .

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  6. बेशर्मियाँ भी अब तो घबराने लगीं हैं
    शर्म के नाम पर सबको छला कीजिए ..

    वाह जी वह ... कमाल कर दिया इस शेर में आपने ... शर्म के नाम पे ही छलना ...

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  7. बढ़िया लिख रहे हैं आप आपकी टिप्पणियाँ हमें भी प्रेरित करती हैं .

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