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Tuesday, November 25, 2014

अज़ीज़ जौनपुरी : अकेले ही भला था मैं




अकेला  ही  भला  था  मैं  अकेला  ही  भला  हूँ  मैं
बहुत   खुश   हूँ  अकेले  मैं  अकेले   ही चला हूँ मैं

हर कदम पर मुश्किलों का सामना हमने किया है
रात की क्या बात करना गया  दिन में छला हूँ मैं

मिट  गए हर  हर्फ़ जो  हमने  किताबों में लिखे थे
इक- इक बिखरे पन्नो की  किताबों सा जला हूँ मैं

हमारी कोशिशें थीं के तहज़ीब दुनिया को सिखाएं
जब -जब  जलीं  तहज़ीब है   तब -तब  जला हूँ मैं

हिम्मत थी मेरी जो  मौत  को  भी मात देती थी
वक्त की छाती पे अक्सर मूंग जी भर दला हूँ मैं

है  फक्र  मुझको खुद पे इतना जी रहा हूँ शान से
न  उपलब्धियों के नाम पे हाथ अपना मला हूँ मैं

देखकर  मक्कारियाँ   औ   फ़ितरत  जमानें  की
दोस्तों के घर में  अपनें   दुश्मनों  सा पला हूँ  मैं

                                        अज़ीज़ जौनपुरी 

Sunday, November 16, 2014

अज़ीज़ जौनपुरी : पहलू में दिल किसी का




1.
समझा था जिसे आग वो धुआँ निकला
न  वो  कशिश बची न वो मज़ा रहा
2.
रह -रह के  धड़कता है कुछ मिरे भीतर
गोया पहलू में दिल किसी का करवट बदल रहा हो 
3.
है कुछ मिरे अन्दर जो बैचैन सा  रहता   है
जाने तेरा  दिल है या दिल मेरा  
4. 
अच्छा हुआ की आप महफ़िल में नहीं आए 
वर्ना कई रकीब तेरी जाँ पे उतारू थे
5.
ये हुश्न की मंडी है तिज़ारत है इश्क की 
अल्लाह के बन्दों को फुर्शत कहाँ वो आएँ 
     
                               अज़ीज़ जौनपुरी

Wednesday, November 5, 2014

अज़ीज़ जौनपुरी : तू चला देश की देने सुपारी



    

   मुस्लिम भाई समझ गए हैं तेरी क्या औकात बुखारी 
   गद्दारों से हाथ मिला कर तू चला देश की देने  सुपारी

   नब्ज़ तेरी छू कर के देखा तू दे रहा देश को  है  धोखा 
   नमक  देश  का खाकर  तू  करता सुबह  शाम गद्दारी

   फ़ितरत  तेरी नहीं चलेगी  मक्कारी  भी यहीं  जलेगी
   चला  लगाने  देश दाव पर  बना आज तू बड़ा जुआरी 

   नफ़रत  की  भाषा है गढ़ता  बीज  विषैले  है तू बोता 
   नारा हिन्दू मुश्लिम का दे  चलता  चाल  रोज दुधारी 

  मज़हब  की दीवार खड़ी कर दंगों की साजिस है रचता 
  क्या जवाब तू खुद को देगा छोडो भी अब ये मक्कारी 

  हिन्दू -मुस्लिम नहीं लड़ेंगें  साथ  राम अल्लाह कहेंगें
  एक साथ हम मिल के रहेंगे चुप हो जा तू आज बुखारी 
   

                                                                              अज़ीज़ जौनपुरी
   

   

Monday, October 20, 2014

अज़ीज़ जौनपुरी : कौन यहाँ किसका है भैया

     

      दर्द  में जीना सीख लिया है 
      ग़म को पीना सीख लिया है

     चाक गिरीबां कितना भी हो 
     सीना उसको सीख लिया है

     दिया  जहर  जब  अपनों ने
     हंस कर पीना सीख लिया है 
    
     अपने पास तो ग़म की गठरी 
     जिसको ढोना सीख लिया है 

    कौन  यहाँ  किसका है  भैया 
    तनहा  जीना  सीख लिया है 

    फ़ितरत   की  इस  दुनिया में 
    सम्हल के चलना सीख लिया है 

      कृपया गलतिओं की  तरफ़ 
        अवश्य  स्पष्ट  संकेत करें 

                     अज़ीज़ जौनपुरी 
    
    
   
    
   

Friday, October 17, 2014

अज़ीज़ जौनपुरी : चर्चामंच पर जीवंत चर्चा




    
     मंच हो ऐसा सजा
    गुलमोहर के फूल जैसा
    गलतिओं और भूल पर 
    हो मृदुल भावों की वर्षा
    हर शब्द पर हो पैनी नज़र
    औ टिप्पणी हो धार  जैसा 
    सच देखना सुनना व कहना 
    मंच का आसन  हो जैसा
    नित नए नूतन सुझावों 
    औ ज्ञान की हो सतत वर्षा
    रचनाकारों तुम भी सुन लो 
    गर न हो  बाणों की वर्षा 
    हम अधूरे ही रहेगें 
    गर न होगी ज्ञान वर्षा 
    सहजता हो धैर्य हो 
    श्रवण का सामर्थ्य हो 
    तब तपस्या होगी पूरी 
    और होगी सत्य वर्षा 
    सोच  का विस्तार  हो 
   साधना का  भाव हो 
   स्वागत  करें  हम  टिप्पणी का 
   जब  आलोचना  की  हो वर्षा 
   अन्यथा  लेने की  आदत  से
   स्वयं  को  विरत कर  लें 
   तभी  होगी  लेखनी पर 
   सरस्वती  की मान वर्षा 
 
  
                  अज़ीज़ जौनपुरी 
   

   

Tuesday, October 7, 2014

अज़ीज़ जौनपुरी : फेरे और वचन





बदलती दुनियाँ
रंग  बदलते  रिश्ते
बदनाम  होते गिरगिट
और हम जो
चाल चेहरा रंग
और  भी बहुत कुछ
बदलनें में  महारथ
यहाँ तक की
फेरे और वचन
यानी अपनी अपनी 
धड़ल्ले  से बीवियाँ
प्रगतिगामी विश्व  की 
सायद  यही है 
आधुनिकता  की 
परिभाषा


अज़ीज़ जौनपुरी

 

Thursday, October 2, 2014

अज़ीज़ जौनपुरी : जिंदगी बारूद की कहानी तक


  


छेनिओं से हथौड़ों तक 
चोट पर चोट करते 
कभी संबंधों से 
अनुबंधों तक
अनुच्छेदों से विच्छेदों तक
कभी आग से पानी तक 
या फिर आग से 
बारूद की कहानी तक 
इस अखाड़े से उस अखाड़े तक 
कुस्ती और दंगल 
कभी धारा के संग 
कभी विपरीत 
कभी रुकती कभी रेंगती 
कभी होने की गवाही से 
न होने की तबाही तक 
रौशनी से गुमनामी के 
अंधेरों से होती हुई 
एक अंधी सुरंग के बीच 
पड़ाव दर पड़ाव 
घुटने या सीने में 
दर्द की गठरी की तरह 
निचोड़ो तो खून 
खून खून और  खून 
नहीं नहीं 
कत्तई इतना ही नहीं
और बहुत कुछ है 
कभी कंठी तो
कभी सुमिरिनी  कभी
एक चुटकी सिन्दूर 
का बोझ उठाते माथे 
और माथों पर 
न जाने कितनी लकीरें 
कभी आड़ी कभी सीधी 
बेहिसाब दौड़ती
टूटते आस्था और विश्वास 
ढहती  दीवारें  
टुकड़ों में  बटते आंगन 
या  हमारे  दिल 
रूप  को अर्थ  देने से 
अनर्थ  लिखने  तक
के साथ  एक ऐसा  
सफ़ेद झूंठ 
जिस पर  लिखा है रवानी 
दरअसल  एक आग  है 
और  रिस  रहा है  हर पल
एक  लाल  रंग  का पानी 

      अज़ीज़  जौनपुरी